Friday, October 22, 2010

बिहार लौटते प्रबुद्ध युवा

कुछ दिनों पहले निर्माण फौन्डेशन के राकेश प्रकाश, आयुष आनंद और मनीष कुमार जब मुझसे मिलने आये तो इन युवाओं को देख कर मैं थोडा सशंकित हुआ कि पता नहीं जिस मुद्दे पे ये बात करने आये हैं उसको लेके ये कितने सजग हैं। कम उम्र पर योजना बड़ी। ये लोग अमेरिका में रह रहे एक प्रवासी बिहारी वैज्ञानिक के संरक्षण में "बिहार साइंस चैलेन्ज" नाम से एक कार्यक्रम का आयोजन बिहार में करना चाहते थे। उद्देश्य था १० से १७ साल के युवा बिहारियों के दिमाग में एक वैज्ञानिक सोंच को बढ़ावा देना, जिसके माध्यम से बिहार की कुछ मूलभूत समस्याओं के लिए एक मौलिक समाधान खोजना। इस प्रतियोगिता के बिषय भी बड़े रोचक रखे हैं इन्होने, जैसे - 'बिहार गो ग्रीनर', 'इनोवेटिव टेक्निक फॉर इर्रिगेशन', 'पटना ट्राफिक मनेजमेंट, 'रेन वाटर हार्वेस्टिंग', 'कैच द क्रिमिनल्स इन सिक्सटी सेकेण्ड', 'पॉवर ओउतेज सोलुशन'। पुरष्कार की राशि भी आकर्षक है।- प्रथम स्थान प्राप्त करने वाले को ५१०००, द्वितीय को २१००० और तृतीय को ११०००। इसके अलावे १५ लोगों के लिए सांत्वना पुरष्कार भी है। नवम्बर में होने वाले इस आयोजन से उम्मीद है की इससे बिहारी बच्चों में कुछ वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित होगा। साथ ही बिहार की कुछ समस्याओं का अच्छा समाधान मिल जाये.

बातचीत के क्रम में पता चला की ये सभी आई आई टी से पास और एक बड़े ही प्रतिष्ठित कम्पनी में काम कर रहे थे। उनमे से एक मनीष कुमार अभी भी ONGC में काम कर रहे हैं। तो फिर ये सब अच्छी सैलरी और प्रतिस्था वाली नौकरी छोड़ के बिहार में क्यूँ काम करने आ गए। अजी साहब ये नया पैशन है प्रबुद्ध युवाओं का। नया जोश, सब कुछ बदल देने का जज्बा। या शायद वो दर्द जो इस पीढ़ी ने झेला है बिहारी होने के नाते। हर जगह अपनी पहचान छुपाये, डरे सहमे, न जाने किस बात के लिए बलि का बकरा बना दिया जाये। पर शायद इन मुश्किलों से जूझते हुए ही लड़ने की ताकत आ गयी है। और खड़े हो गए हैं अपने बिहार को बचाने के लिए। इसके विकास के लिए योगदान देने के लिए। या शायद वो खोयी हुई प्रतिस्था फिर से पाने के लिए, जब बिहारी कहलाना गर्व की बात होती थी.


बरबस ही याद आ गयी डॉ० रवि चंद्रा की, जिन्होंने IRMA से कोर्स करने के बाद अच्छी नौकरी छोड़ 'बिहार देवलोपमेंट ट्रस्ट' नाम से संस्था बना कर बिहार के गरीब लोगों को स्वरोजगार उपलब्ध कराने के उद्देश्य से माइक्रोफिनांस के क्षेत्र में काम शुरू किया। आज वो काफी अच्छा काम कर रहे हैं। उम्मीद करता हूँ की आनेवाले दिनों में वो कुछ वैसा कर पायें जैसा की बंगलादेश के मोहम्मद युनुस ने अपने देशवासियों के लिए किया था।

इन्ही युवाओं में दो ऐसे नाम हैं जिनसे आप सभी परिचित हैं। एक हैं आई आई एम् सब्जीवाले के नाम से मशहूर नालंदा जिले के कौशलेन्द्र और दूसरा बेगुसराई के इरफ़ान आलम। आई आई एम् अपने आप में ही एक ब्रांड है। सभी जानते हैं कि उसके नाम पे लोगों को कितने अंकों वाला वेतन मिल सकता है, पर उसे छोड़ के बिहार में ऐसा काम शुरू करना जिसके बारे में ज्यादा लोग सोंच भी नहीं सकते। पर आज सभी जानते हैं की उनके इस प्रयास से कितने ही किसानों की जिंदगी बदल गयी। हो सकता है भविष्य में बिहार सब्जी के सबसे बड़े उत्पादक और बाज़ार के रूप में उभर कर सामने आये। जिस प्रकार फलों खास कर नारंगी ने अमेरिका के कैलिफोर्निया का रूप बदल दिया, मुझे लगता है ठीक उसी तरह एक दिन फ़ूड प्रोसेसिंग के क्षेत्र में बिहार का भी नाम होगा, जिसकी शुरुआत के लिए कौशलेन्द्र जैसे युवाओं का नाम जरुर लिया जायेगा। इरफ़ान आलम के सम्मान फौन्देशन ने कितने ही रिक्शा वालों को सम्मान के साथ जीने का हौसला दिया। मुझे याद है किस तरह से इरफ़ान एक चैनल की एक प्रतियोगिता 'बिज़नस बाज़ीगर' के विजेता बने थे। ये बिहारी लोगों का जन्मजात टैलेंट होता है। जहाँ जाते हैं छा जाते हैं। अब तक यह टैलेंट दूसरों के लिए कार्य करता था पर अब यह अपने बिहार के लिए कार्य करने को आतुर है.

एक और प्रगतिशील युवा हैं नितिन चंद्रा। इनका माध्यम थोडा अलग है पर मकसद वही है बिहार की तरक्की। फ़िल्में बनाते हैं। कुछ साल पहले इन्होने एक फिल्म बनाई थी - 'Bring Back Bihar' जिसमे बिहार को वापस लाने की बात रखी गयी थी। बिहार फौन्देशन के लिए भी एक फिल्म बनाई - 'A New Chapter' जो प्रवासी बिहारियों पर आधारित थी और बिहार फौन्देशन के आने से प्रवासियों में जो एक उम्मीद जगी है उसको चित्रित किया गया है। अभी हाल में इन्होने 'Deswa' नाम से एक भोजपुरी फिल्म का निर्माण किया है। जिसमे भोजुपरी को हिंदी सिनेमा के समान्तर ला कर खड़ा करने का प्रयास किया जा रहा है। इस फिल्म में उन्होंने बिहारी थीएटर से जुड़े लोगों को मौका दिया है और फिल्म की ज्यादातर शूटिंग बिहार में ही की है। इन्होने और नीतू चंद्रा ने मुंबई में हुई एक मुलाकात में पटना में अपना एक एक्टिंग ट्रेनिंग स्कूल खोलने की इच्छा व्यक्त की थी - चंद्राज़ के नाम से.

ये ट्रेनिंग स्कूल ये लोग मुंबई में भी खोल सकते हैं, पर बिहार को आगे बढाने की इनकी सोंच ही उन्हें बार-बार बिहार ले आती है। हम ऐसी उम्मीद करते हैं कि deswa फिल्म भोजपुरी के इतिहास में एक नया अध्याय शुरू करेगी।

एक और युवा हैं बिभूति बिक्रमादित्य - द० कोरया में अच्छी खासी नौकरी कर रहे हैं पर बिहार को वापस लाने का जज्बा इन्हें बार-बार बिहार ले आता है. विज्ञान के क्षेत्र में बिहार को आगे ले जाने के उद्देश्य से हर साल 'इंडियन साइंस कौंग्रेस' के तर्ज पर 'बिहार साइंस कौंग्रेस' का आयोजन करते हैं. मैं भी अपने कॉलेज के दिनों में इंडियन साइंस कौंग्रेस का सदस्य हुआ करता था जिसका उद्घाटन प्रतिवर्ष प्रधानमंत्री करते थे और उसमे देश के तमाम वैज्ञानिक और उसमे रूचि रखने वाले लोग इकठ्ठा होते थे. अभी हाल ही में इन्होने पटना ट्रैफिक मैनेजमेंट के लिये अपने सुझाव प्रस्तुत किये हैं. इनकी योजना बिहार में एक टेक्नीकल इंस्टिट्यूट स्थापित करने की भी है. साथ ही कोरया में ये बिहार फौन्देशन को भी फैला रहे हैं।

ऐसे कई युवाओं के मेल मुझे आते हैं जो अभी अपने फ़ाइनल इयर में हैं या किसी प्रतियोगिता परीक्षा के साक्षात्कार में जाने वाले हैं और वो बिहार के लिए कुछ करना चाहते हैं. मेरी उनको निजी सलाह होती है कि पहले वो खुद को करियर में स्थापित करें फिर वो बिहार के लिए ज्यादा अच्छे से योगदान दे पाएंगे. पर सोंचने वाली बात ये है कि आज युवाओं में बिहार के लिए कुछ करने कि प्रवृति बढ़ रही है. ये शायद बिहारी होने का दंश झेलने के कारण हो या फिर जैसी सुविधा और वातावरण वो दूसरे राज्यों या देशों में देखते हैं वैसा ही बिहार में भी बनाना चाहते हो ताकि आने वाली पीढ़ी को वो सब न झेलना पड़े जो हमें झेलना पड़ा है.

Sunday, October 17, 2010

पटना की दुर्गा पूजा

यूँ तो दुर्गा पूजा में कई शहरों में रहने का मौका मिला है। हो सकता है कई जगहों की पूजा में तकनीक और मूर्तिकला का ज्यादा अच्छा उदाहरण (जैसे कोलकाता में) देखने को मिलता हो, पर जो अपनापन बिहार की पूजा में मिलता है वो शायद ही कहीं महसूस होता है. इस बार भी पटना की पूजा में वही अपनापन और जोश देखने को मिल रहा था।

पंडालों की सज्जा हो या मूर्तियों का डिजाईन, हर प्रस्तुति अपने आप में अलग थी। अलग-अलग थीम पर पंडालों की सजावट इस बार भी देखते ही बनती थी।

कहीं पर मंदिरों का डिज़ाइन बनाया गया था तो कहीं कोई दृश्य। 

पर असली आकर्षण तो वो पंडाल थे जहाँ तकनीक का इस्तेमाल कर प्रदर्शन किया गया था. लाइट और साउंड के प्रयोग से दिखाया जा रहा था की किस प्रकार देवी दुर्गा महिसासुर का वध कर रही हैं. जलती बुझती रौशनी के बीच एक त्रिशूल और तीर आके महिसासुर को लगता था. साथ ही बैक ग्राउंड में अट्टहास और अन्य आवाज़ प्रदर्शन को जीवंत बना रही थीं. एक अन्य पंडाल में राक्षश के मुख में गुफा की शक्ल दी गयी थी और अन्दर में देवी की प्रतिमा स्थापित की गयी थी. बाहर के भाग में करीब २०-२५ फीट ऊँचा पहारनुमा आकृति थी जिस पे भागीरथ द्वारा गंगा को धरती पे लाने का दृश्य दिखाया गया था. जलती-बुझती रौशनी और साउंड इफ्फेक्ट के बीच पानी की निकलती धारा गंगा के धरती पे आने का उत्तम प्रदर्शन था. इन जगहों पे लोगों की भीड़ बेकाबू हो रही थी।

कई जगहों पे मूर्तियों की सुन्दरता भी देखते ही बनती थी. साथ की सजावट से इसमें चार चाँद लग गया था. रोड के दोनों तरफ ट्यूब लाइट की रौशनी पुरे पटना को जगमग बना रही थी. मुख्य सड़कों का शायद ही कोई इलाका दिखा जहाँ रौशनी नहीं थी. सड़कों पे पूरी चहल पहल दिख रही थी. कारों और बाइक का काफिला कई जगहों पे अटका पड़ा था. उनकी गति भी पैदल चलने वालों के सामान ही धीमी थी। हाथों में हाथ डाले लोग (जोड़े) अब पटना की सडको में बड़े बेफिक्र हो के घूम रहे थे और पूजा का आनंद उठा रहे थे. मुझे याद है कॉलेज के वो दिन जब इन्ही पटना की सड़कों पे ऐसे लोग शायद ही दिखते थे. इसी भीड़ में कई युवा जोड़ों को पीछे छोड़ता हुआ एक बुजुर्ग जोड़ा एक दूसरे का हाथ पकडे तेज़ी से आगे निकलता हुआ दिखा. माता-पिता या बड़े भाई-बहन अक्सर छोटे भाई-बहनों का हाथ पकड़ कर इसलिए चलते हैं कि कहीं खो न जाएँ. कई लोग इस भीड़ में खो भी जाते हैं. ऐसे में इस बार भी जगह-जगह पे पंडालों में अनाउंस किया जा रहा था खोये हुए लोगों के बारे में. एक जगह पे अनाउंसर कुछ इस तरह से कह रहा था - 'रिन्कुजी आप जहाँ कहीं भी हों पंडाल के गेट पे चले आयें आपके घरवाले बड़ी ही बेशर्मी (शायद वह बेशब्री कहना चाह रहा था) से आपका इंतज़ार कर रहे हैं.' इस तरह से उसने कई बार अनाउंस किया. लोगों को इस तरह कि बात सुनकर बड़ा मज़ा आ रहा था।
बेली रोड पे राक्षश कुल का एक प्राणी अपनी चमकती हुई सींघों के साथ आगे बढ़ रहा था, जिसे देख बच्चे डर जा रहे थे. कुछ बड़े बच्चे चमकने वाली सींघ की दुकान खोज रहे थे. हर बार पूजा में कोई न कोई इस तरह की नयी चीज़ बाज़ार में आती है जो बच्चों और युवाओं का आकर्षण बनती है. जगह-जगह खिलोने, मूर्तियों की दुकाने सजी पड़ी थीं. इनमे बंदूकों की बिक्री शायद सबसे ज्यादा होती है. मुझे याद है हमलोग दुर्गा पूजा से ही अपने पिताजी से बन्दूक खरीदवा लिया करते थे और छठ तक चोर- पुलिस खेला करते थे. आज भी बंदूकों का क्रेज बरक़रार है. छोटे-बड़े तरह-तरह के झूले बच्चे तो बच्चे, बड़ों के भी आकर्षण का केंद्र बने हुए थे. कुछ चीज़ें सदाबहार होती हैं. फर्क सिर्फ तकनीक का आ जाता है. आज के झूले कई तरह के हो गए हैं. गोलगप्पे जिसे पटना में हमलोग फोक्चा के नाम से जानते हैं, चाट पकोरे, आइसक्रीम इत्यादि की दुकाने, ठेले लगे हुए थे और हर बार की तरह लोगों की भीड़ इन सड़क के किनारे मिलने वाले व्यंजनों का आनंद ले रही थी.
नवमी के दिन सुबह से हो रही बारिश से तो लगता था कि इस बार पूजा का मज़ा किरकिरा हो गया, पर शाम होते-होते सबकुछ सामान्य हो गया था और लोगों कि भीड़ उसी उत्साह से पटना घूम रही थी और पटना के दुर्गा पूजा का आनंद उठा रही थी. इस भीड़ में कुछ पराये भी थे कुछ अपने भी।
हम चाहे जहाँ कहीं भी चले जाएँ, कितनी सुविधाओं में क्यूँ न रहने लगें पर पर्व के समय अपने बिहार में रहना ही सबसे ज्यादा खुशी देता है. वो अपनापन, वो लगाव जो यहाँ है, वो शायद कहीं नहीं है. वैसे लोग जो किसी कारणवश घर नहीं आ सके उम्मीद है उन्हें इससे अपने बिहार कि कुछ झलक जरुर मिलेगी. अपने विचार और अनुभव हमें जरुर बताएं. कुछ संकलित तस्वीरों के साथ आपको छोड़ रहा हूँ. आप सबों को दशहरा  की  ढेर सारी शुभकामनायें.

Wednesday, October 6, 2010

प्रवासियों को वोटिंग का अधिकार

प्रवासी भारतीय दिवस करीब आ रहा है। केंद्रीय मंत्री श्री व्यालार रवि अपने सन्देश में कहते हैं - "मुझे बताते हुए ख़ुशी हो रही है की नॉन रेसिडेंट इंडियनस को वोट देने से सम्बंधित बिल संसद ने पास कर दिया है।" हो सकता है एन आर आई के लिए ये ख़ुशी की बात हो, पर क्या वैसे प्रवासियों को वोट देने का अधिकार नहीं है जो अपने ही देश में अपनी ज़मीन से दूर रहते हैं?

मुंबई में रह रहे हसन कहते हैं - इच्छा तो बहुत होती है कि हम अपने क्षेत्र के लिए एक सही प्रतिनिधि चुनें पर इतनी जल्दी जा नहीं सकता, अभी ईद में ही वापस आया हूँ। कुछ इसी तरह कि बात गुडगाँव के एक मल्टी नेशनल कंपनी में काम करने वाले एक इंजिनियर आलोक कहते हैं - दुर्गा पूजा, दिवाली और छठ में से किसी एक पर्व में ही जा पाऊंगा। पर्व के समय टिकेट मिलना बहुत मुश्किल होता है। अभी छठ का टिकट मिला है, पर उस वक़्त मेरे इलाके में चुनाव हो चूका होगा। चाहकर भी भाग नहीं ले सकता। एक अच्छे प्रतिनिधि से ही क्षेत्र का विकास संभव हो पाता है। और सबसे बड़ी बात अपनी पहचान की है। कोई अच्छा प्रतिनिधि ही अच्छी पहचान प्रस्तुत कर सकता है, जिसपे हम प्रवासी लोग भी गर्व कर सकें।
सिर्फ हसन और अलोक ही नहीं ऐसे तमाम लोग हैं जो किसी न किसी मज़बूरी की वजह से वोट नहीं दे पाते हैं । मज़बूरी चाहे नौकरी की हो या पैसे की या फिर हालत की । पर यह सत्य है करोरों लोग अपने उस अधिकार से वंचित रह जाते हैं जिस पे उनका तथा उनकी आने वाली पीढ़ी का भविष्य टिका होता है। ऐसी भीड़ में सिर्फ अपने राज्य से बाहर रहने वाले ही नहीं, अपने ही राज्य के दुसरे जिले में रहने वाले भी तमाम लोग शामिल हैं जो वोटिंग के अधिकार से वंचित रह जाते हैं।
आज जब एन आर आई लोगों के लिए वोट देने का अधिकार दिया जा रहा है तो यह सवाल उठाना भी लाजमी है की सरकार अपने ही देश में रहने वाले प्रवासियों की वोटिंग में भागीदारी सुनिश्चित करे। सम्प्रति केंद्र सरकार विदेशों में स्थित भारतीय दूतावास के माध्यम से एन आर आई को वोट देने की सुविधा देने वाली है। तो फिर कोई ऐसी व्यवस्था क्यूँ नहीं की जा सकती की प्रवासी लोग अपनी कर्मभूमि में रहते हुए भी अपने जन्मभूमि के लिए एक अच्छे प्रतिनिधि का चुनाव कर सकें। आज संचार क्रांति की धूम है। उसका प्रयोग किया जा सकता है। पहले लोग बैलट पेपर का इस्तेमाल करते थे, आज अनपढ़ लोग भी इवीएम् मशीन पे बड़ी ही आसानी से वोट दे रहे हैं। बदलाव आता है तो लोग धीरे-धीरे सीख ही जाते हैं। तो एक बदलाव इस क्षेत्र में और लाया जाये, जिससे की प्रवासियों की वोटिंग में भागीदारी हो सके। वो सिर्फ मजबूरियों की वजह से अपने इस बहुमूल्य अधिकार से वंचित न रह पायें।
आज तमाम सोशल नेट्वोर्किंग साइट्स पे लोग बिहार में होने वाले चुनाव के विषय में बात करते हैं, अपने सुझाव देते हैं, लोगों से अपील करते हैं की उन्हें चुने जो बेहतर हैं पर अपने वोट के बारे में मन मसोस कर रह जाते हैं। अगर सरकार और चुनाव आयोग इसतरह की कोई व्यवस्था कर पाए तो हो सकता है की नतीजा कुछ सकारात्मक निकले। एक सर्वे के मुताबिक लगभग ४५ से ५० लाख लोग २००९ में बिहार से बाहर गए। प्रतिवर्ष काफी बड़ी संख्या में लोग बिहार से बाहर जाते हैं। चुनाव आयोग के अनुसार आज बिहार में साढ़े ५ करोड़ मतदाता हैं। अगर पिछले चुनाओं के प्रतिशत पे ध्यान दें तो पाएंगे की औसतन २० से ३० प्रतिशत लोग ही वोट दे पा रहे हैं। तो क्या वोट ना दे पाने वालों में एक बड़ी संख्या उनकी है जो माइग्रेट कर गए हैं। तब तो यह और भी आवश्यक हो जाता है की माइग्रेट करने वालों को वोट देने की कोई व्यवस्था की जाये। अगर दुसरे नजरिये से देखेंगे तो क्या जो प्रतिनिधि चुन कर आते हैं वो सिर्फ मुठी भर लोगों द्वारा ही नहीं चुने जाते हैं? तो फिर कैसा लोकतंत्र हुआ यह? क्या ऐसी स्थिति में सरकार और चुनाव आयोग की जिम्मेदारी नहीं बनती की ज्यादा से ज्यादा लोगों की भागीदारी सुनिश्चित की जाये जिससे की एक वैसा प्रतिनिधि चुना जा सके जो ज्यादातर ( कम से कम ५०% से ज्यादा) लोगों द्वारा चुना जाये। तभी शायद लोकतंत्र अपने सही रूप में कहा जा सकेगा और प्रवासियों को वोट देने की व्यवस्था करना इसमें एक सार्थक कदम हो सकता है।